पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२८४

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___२८९ विनय-पत्रिका मोसे कूर कायर कुन कौड़ी आधके । किये वटुमोल ते करैया गीध-थाधके ॥ ४॥ तुलसीकी तेरे ही बनाये, बलि, बनेगी। प्रभुकी बिलंव-अब दोप-दुख जनैगी ॥ ५ ॥ भावार्थ-कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ? कैन इस ( साधनरूपी धनसे हीन ) दीनकी सुनेगा ? मुश-सरीखे सब तरहसे साधनहीन- की गति तो तीनों लोकोंमे एकमात्र तू ही है ॥ १॥ यों तो दुनियों में घर-घर जगदीश' भरे हैं ( सभी अपनेको ईश्वर कहते हैं ) पर जिसके कोई आधार नहीं उसके लिये तो एक तेरे गुण- समूहका (गान ) ही आधार है । भाव यह कि तेरे ही गुगों का गानकर वह संसार-सागरको पार करता है ॥ २ ॥ गजराजको छुड़ानेके लिये गरुड़को छोड़कर कौन दौडा था ? जिसने मुझ-जैसे पापोंके भण्डारका भी पालन-पोषण किया, ऐसा एक तुझे छोड़कर और किसको किस माताने जना है ? ॥ ३ ॥ मुझ-जैसे क्रूर, कायर, कुपूत और आधी कौड़ीकी कीमतवालोंको भी, हे जटायुके श्राद्ध करनेवाले ! तूने बहुमूल्य बना दिया ॥ ४ ॥ बलिहारी ! तुलसीकी (बिगड़ी हुई) बात तेरे ही बनाये बन सकेगी। यदि तूने मेरा उद्धार करनेमें देर की, तो फिर वह देहरूपी माता दुःख और दोष- रूपी सन्तान ही जनेगी । भाव यह कि तू कृपा करके शीघ्र उद्धार न करेगा तो मैं पाप और दुःखोंसे ही घिर जाऊँगा ॥ ५॥ [१८०] वारक विलोकि वलि कोजे मोहिं आपनो। राय दशरथके तू उथपन-थापना ॥१॥ वि०५० १९-