पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२७०

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२७५ विनय-पत्रिक जो थोपति-महिमा विचारि उर भजते भाव बढ़ाए । तो कत द्वार-द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए ॥३॥ जे लोलुप भये दास आसके ते सवहीके चेरे। प्रभु-विस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे ॥४॥ नहिं एको आचरन भजनको, विनय करत होताते। कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते ॥५॥ भावार्थ-यदि श्रीरामचन्द्रजीके चरणों में प्रेम होता, तो रात-दिन तीनों प्रकारके कष्ट और निखालिस विपत्ति ही क्यों सहनी पड़ती ॥१॥ यदि यह मन दिन-रातमें कभी स्वप्नमे भी सन्तोषरूपी अमृत पा जाय, तो विषयरूपी झूठे मृग-जलको देखकर उसके पीछे यह मृगवनकर क्यों दौड़े ? ॥ २ ॥ यदि हम भगवान् लक्ष्मीकान्तकी महिमाका हृदयमें विचारकर प्रेम बढ़ाकर उनका भजन करते, तो आज कुत्तेकी तरह द्वार-द्वार पेट दिखाते हुए क्यों मारे-मारे फिरते॥३॥जो लोभी आशाके दास बन गये हैं, वे तो सभीके गुलाम हैं (विषयोंकी आशा रखनेवालेको ही सबकी गुलामी करनी पड़ती है) और जिन्होंने भगवान्में विश्वास करके आशाको जीत लिया है, वे ही भगवान्के सच्चे सेवक हैं ॥ ४ ॥ मैं आपसे इसलिये विनय कर रहा हूँ कि मुझमें भजनका तो एक भी आचरण नहीं है। (केवल आपका नाम जपता हूँ।) हे नाथ ! तुलसीदासपर इस नामके नातेसे ही कृपा कीजिये ॥ ५॥ [१६९] जो मोहि राम लागते मीठे। तौ नवरस-पटरस-रस अनरस के जाते सब सीठे ॥१॥