पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२६९

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२७४ विनय-पत्रिका भावार्थ-श्रीरघुनायजीकी भक्ति करने में बड़ी कठिनता है। कहना तो सहज है, पर उसका करना कठिन | इसे वही जानता है जिससे वह करते बन गयी ॥१॥ जो जिस कलामें चतुर है, उसीके लिये वह सरल और सदा सुख देनेवाली है। जैसे (छोटी-सी) मछली तो गङ्गाजीकी धाराके सामने चली जाती है, पर बडा भारी हाथी वह जाता है । क्योंकि मछलीकी तरह उसमे तैरना नहीं जानता)॥ २ ॥ जैसे यदि धूलमें चीनी मिल जाय तो उसे कोई भी जोर लगाकर अलग नहीं कर सकता, किन्तु उसके रसको जानने- वाली एक छोटी-सी चींटी उसे अनायास ही (अलग करके ) पा जाती है॥ ३ ॥ जो योगी दृश्यमात्रको अपने पेटमें रख (ब्रह्मम मायाको समेटकर, परमेश्वररूप कारणमें कार्यरूप जगत्का लय करके) (अज्ञान ) निद्राको त्याग कर सोता है, वही द्वैतसे आत्यन्तिक रूपसे मुक्त हुआ पुरुष भगवान्के परम पदके परमानन्द- की प्रत्यक्ष अनुभूति कर सकता है ॥ ४ ॥ इस अवस्थामें शोक. मोह, भय, हर्ष, दिन-रात और देश-काल नहीं रह जाते । ( एक सच्चिदानन्दघन प्रभु ही रह जाता है । ) किन्तु हे तुलसीदास । जबतक इस दशाकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक सशयका समूल नाश नहीं होता ॥ ५॥ [१६८] जोपै राम-चरन-रति होती। तौकत त्रिविध सूल निलिबासर सहते बिपति निसोती ॥१॥ जो संतोष-सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुँक पावै। तो कत बिषय बिलोकि झूठ जल मन कुरंग ज्यों धावै॥२॥