पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२६६

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२७१ विनय-पत्रिका निरभिमानकी बात है )॥ ३ ॥ कुत्तेके कहनेपर संन्यासीको तो हाथीपर चढ़ाकर नगरके बाहर निकाल दिया और श्रीसीताजीकी झूठी निन्दा करनेवाले मूर्ख धोबीको अपनी प्रजा समझकर, नीतिसे अपने नगर अयोध्यामें बसा लिया ( क्योंकि वह दीन-गरीब था)|४|| (इससे सिद्ध है कि) इस दरबारमें, रामराज्यमें, दीनोंके आदर करनेकी रीति सदासे चली आ रही है। किन्तु हे दीनदयाल ! (क्या ) इस दीन तुलसीका ध्यान आपको (आजतक) किसीने नहीं दिलाया॥५॥ [१६६] ऐसे राम दीन-हितकारी। अतिकोमल करुनानिधान विनु कारन पर-उपकारी ॥१॥ साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि-नारी। गृहवें गवनि परसि पद पावन घोर सापते तारी ॥२॥ हिसारत निषाद तामस वपु, पसु-समान वनचारी। भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमवस, नहिं कुल जाति बिचारी ॥ ३ ॥ जद्यपि द्रोह कियोसुरपति-सुत, कहि न जाय अति भारी। सकल लोक अवलोकि सोकहत, सरन गये भय टारी ॥४॥ विहँग जोनि आमिष अहारपर, गीध कौन व्रतधारी। जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सव भाँति सँवारी ॥५॥ अधम जाति सवरी जोषित जड़, लोक-बेद ते न्यारी। जानि प्रीति, दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनाथ उधारी॥ ६॥ कपि सुग्रीव बंधु-भय व्याकुल आयो सरन पुकारी। सहि नसके दारुन दुख जनके, हत्यो वालि सहि गारी ॥ ७॥ रिपुको अनुज विभीषन निसिचर, कौन भजन अधिकारी। सरन गये आगे है लीन्हों भेंट्यो भुजा पसारी ॥ ८॥