- - विनय-पत्रिका २७० तेरे हृदयमे भक्तिका उदय न हुआ, तो तुझे जन्म देकर तेरी माँने व्यर्थ ही अपनी जवानी खोयी ॥ ७ ॥ [१६५] रघुवर रावरि यहै बड़ाई। निदरि गनी आदर गरीवपर करत कृपा अधिकाई ॥१॥ थके देव साधन करि सव, सपनेहु नहिं देत दिखाई। केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल सँग भाई ॥२॥ मिलि मुनिवृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई। बारहि वार गीध सबरीकी वरनत प्रीति सुहाई ॥३॥ खान कहे तें कियो पुर वाहिर, जती गयंद चढ़ाई। तिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर वसाई ॥४॥ यहि दरवार दीनको आदर रीति सदा चलि आई। दीन-दयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई ॥ ५॥ भावार्थ-हे रघुश्रेष्ठ ! आपकी यही बडाई है कि आप धनियों- का-धनान्धों या गण्यमान्योंका (धन, विद्या या पदके अभिमानियोंका) अनादर कर गरीबोंका आदर करते हैं, उनपर बड़ी कृपा करते हैं ॥ १ ॥ देवता अनेक साधन करके थक गये, पर उन्हें आपने खप्नमें भी दर्शन न दिया, किन्तु निषाद एवं कपटी रीछ, बंदर और राक्षस ( विभीषण) के साथ भाई-चारा कर लिया, ( इसीलिये कि ये सब दीन-निरभिमानी थे)॥ २॥ दण्डकारण्यमें घूमते तो फिरे मनियोंके साथ हिल-मिलकर, परन्तु उनकी तो चर्चातक नहीं चलायी, लेकिन गीध (जटायु) और शबरीके प्रेमका बारंबार सुन्दर बखान करना आपको सदा अच्छा लगा। ( यहाँ भी वही दीनता और
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२६५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।