विनय-पत्रिका है, और फिर तेरे ही लिये चेष्टा करता है) ॥ ३ ॥ (परन्तु ऐसा कहना भी नहीं बनता। क्योंकि ) तुलसीदासके हृदयमें जितना कपट है, उतना किस प्रकार कहा जा सकता है ! पर हे दशरय-दुलारे । तेरे राज्यमें लोगोंने बिना ही जोते-बोये पाया है। अर्थात् बिना ही सत्कर्म किये केवल तेरे नामसे ही अनेक पापी तर गये है, वैसे ही मैं भी तर जाऊँगा, यही विश्वास है ॥ ४ ॥ राग सोरठ [१६२] ऐसो को उदार जग माहीं। विनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ॥१॥ जो गति जोग विराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी । सो गति देत गीध सवरी कहुँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥२॥ जो संपति दस सीस भरप करि रावन सिव पहें लीन्हीं। सो संपदा विभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं ॥३॥ तुलसिदास सब भाँति सकल सुन जो चाहसि मन मेरो। तो भजु राम, काम सव पूरन कर कृपानिधि तेरो॥४॥ भावार्थ-संसारमें ऐसा कौन उदार है, जो बिना ही सेवा किये दीन-दुखियोंपर ( उन्हें देखते ही ) द्रवित हो जाता हो ? ऐसे एक श्रीरामचन्द्र ही हैं, उनके समान दूसरा कोई नहीं ॥१॥ बड़े-बड़े ज्ञानी-मुनि योग, वैराग्य आदि अनेक साधन करके भी जिस परम गतिको नहीं पाते, वह गति प्रभु रघुनाथ जीने गीध और शबरीतकको दे दी और उसको उन्होंने अपने मनमें कुछ बहुत नहीं समझा ॥२॥ जिस सम्पत्तिको रावणने शिवजीको अपने दसों सिर चढ़ाकर प्राप्त
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