विनय-पत्रिका २५६ हैं घर घर बहु भरे सुसाहिव, सूझत सबनि आपनो दाउँ । वानर-बंधु विभीपन-हितु विनु, कोसलपाल कहूँ नसमाउँ ॥२॥ प्रनतारति-भंजन जन-रंजन, सरनागत पवि-पंजर नाउँ । कीजै दास दासतुलसी अव, कृपासिंधु विनु मोल चिकाउँ ॥३॥ भावार्थ-हे रघुनाथजी! आपपर वलिहारी जाता है, मुझे तो बस, आपकी ही शरण है। क्योंकि इस निर्लज, नीच, कंगाल और गुणहीनके लिये संसारमें ( आपको छोड़कर) न तो कोई मालिक है और न कोई ठौर-ठिकाना ही ॥१॥ वैसे तो घर-घर बहुतेरे अच्छे-अच्छे मालिक हैं, किन्तु उन सबको अपना ही खार्थ सूझता है । मैं तो बंदर ( सुग्रीव ) के मित्र और विभीषणके हितैषी कोशलेश श्रीरामचन्द्रजीको छोड़कर और कहीं भी शरण नहीं पा सकता और किसी मालिकके यहाँ मेरा टिकाव नहीं हो सकता ॥ २॥ आप आश्रितोंके दु.खोंका नाश करनेवाले और भक्तोंको सुख देनेवाले हैं। शरणागतोंके लिये तो आपका नाम ही वनके पिंजरेके समान है। भाव यह कि आपका नाम लेते ही वे तो सुरक्षित हो जाते हैं। अत. हे कृपासागर ! अब तुलसीदासको तो अपना दास बना ही लीजिये । मैं अब बिना ही मोलके (आप- के हाथमें ) बिकना चाहता हूँ ॥ ३ ॥ [१५४ ] देव ! दूसरो कौन दीनको दयालु। सीलनिधान सुजान-सिरोमनि सरनागत-प्रिय प्रनत-पाल ॥१॥ को समरथ सरवग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानसमराल। साहिबकियेमीत प्रीति बसखग निसिचरकपिभीलभाल॥२॥
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