पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२४६

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२५१ विनय-पत्रिका सीतापति सनमुख सुखी सब ठॉव समातो ॥३॥ राम सोहाते तोहिं जो तू सवहिं सोहातो। काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहानो ॥ ४॥ राम-नाम अनुरागही जिय जो रतिआनो। स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो ॥५॥ सेइ साधु सुनि समुझि के पर-पीर पिरातो। जनम कोटिको काँदलो हद-हृदय थिरातो ॥६॥ भव-मग अगम अनंत है, विनु श्रमहि सिरातो। महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो ॥ ७ ॥ अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो। होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल विधातो ॥ ८॥ जो मन, प्रीति-प्रतीतिसो राम-नामहिं रातो। तुलसी रामप्रसादसों तिहुँताप न तातो ॥९॥ भावार्थ-अरे ! जो तू श्रीरामजीकी गुलामी करनेमें न लजाता तो तू खरा दाम होकर भी, खोटे दामकी भाँति इस हाथसे उस हाथ न विकता फिरता। भाव यह कि परमात्माका सत्य अंश होनेपर भी उनको भूल जानेके कारण जीवरूपसे एक योनिसे दूसरी योनिमें भटकता फिर रहा है ॥१॥ यदि तू जीभसे श्रीरघुनाथजीका नाम जपनेमें आलस्य न करता, तो आज तुझे वाजीगरके सूमके सदृश धूल न फाँकनी पड़ती ॥ २ ॥ अरे मन ! यदि तू मेरा कहा मानकर रामनामरूपी धन कमाता, तो श्रीजानकी- नाथ रघुनाथजीके सम्मुख उनकी शरणमे जाकर सुखी हो जाता और सर्वत्र तेरा आदर होता । लोक-परलोक दोनों बन जाते ॥ ३॥ जो