२४५ विनय-पत्रिका फैसला कर दिया था, उसी लीलासे ( इस कलियुगसे ) यह भी कह दीजिये कि 'तुलसी मेरा है। (इतना कह देनेसे फिर कलियुगका इसपर कुछ भी वश न चलेगा) ॥ ५॥ [१४७] कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे। महाराज ! लाज आपुही निज जाँघ उघारे ॥१॥ मिले रहें मारयो चहें कामादि संघाती। मो विनु रहै न, मेरिट जारै छल छाती॥२॥ बसत हिये हित जानि मैं सवकी रुचि पाली। कियो कथकको दंड हों जड़ करम कुचाली ॥३॥ देखी सुनी न आजु लौ अपनायति ऐसी। करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी ॥४॥ वड़े अलेखी लखि परें, परिहरे न जाही। असमंजसमें मगन हो, लोजै गहि बाहीं॥५॥ बारक वलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को। अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको ॥६॥ भावार्थ-हे कृपासिन्धु! इसीलिये मैं रात-दिन मन मारे रहता हूँ, बुलाया और उससे पूछा कि, 'तुमने निरपराध कुत्तेके सिरपर क्यों लाठी मारी ब्राह्मणने कहा कि मैं भीख माँगता फिरता था. इसे मैने रास्तेसे हटाया, जब यह न हटा तब मैंने लकड़ी मार दी। ब्राह्मणको अदण्डनीय समझकर भगवान् विचार करने लगे। इतनेमें कुत्तेने कहा कि भगवन् ! आप इसे कालिंजरका महन्त बना दीजिये । मैं भी पूर्वजन्ममें एक महन्त था। भक्ष्याभक्ष्य खानेसे मुझे कुत्ता होना पड़ा. महन्ती बहुत बुरी है।' कुत्तेके कहनेपर भगवान्ने उसे कालिंजरका महन्त बना दिया।
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