पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२३७

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२४२ विनय-पत्रिका तिन्दहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राहिं राम गुसाई ॥४॥ सम-सेवा-उल-दान-दंड हो, संच उपाय पचि हारयो। विनु फारनको कलह पदो दुरा, प्रभुसांप्रगटि पुकारयो ॥ ५॥ सुर स्वारथी अनीस, मलायफ, निठुर, दया चित नादी। जाउँ कहाँ, को विपति-निवारक, भवतारक जग मादी॥६॥ तुलसी जदपि पोच, तर तुम्हरो, और न काट करो। दीजै भगति-घोह धारक, ज्यों सुयस घसै अय मेरो॥७॥ भावार्थ-हे कृपासागर । यह तुम्हारा दीन जन तुम्हारे द्वारपर सहायता क्यों नहीं पाता ? जब, जहाँपर, दुखियोंने तुम्हें पुकारा, तब वहीपर तुमने उनके दुख दूर कर दिये ॥ १॥ गजराज, प्रहाद, पाण्डव, सुग्रीव आदि सबके शत्रुओंसे दिये गये कष्ट तुमने दूर कर दिये। भाई रावणके डरसे व्याकुल शरणागत विभीषणको उठाकर तुमने भरतकी नाई हृदयसे लगा लिया ( फिर मेरे लिये ही ऐसा क्यों नहीं होता) ॥ २ ॥ मैं तुम्हारा नाम लेकर अपने हृदयमें एक गाँव बसाना चाहता हूँ और उसमें बसानेके लिये मैं धीरे-धीरे भजन, विवेक, वैराग्य आदि सज्जनोंको इधर-उधरसे लाता हूँ॥ ३ ॥ पर यह सुनकर क्रोधित हो दुष्ट काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि जबरदस्ती करते हैं और उन वेचारे भजन आदि भले आदमियोंको निकाल-निकालकर, हे प्रभो ! उस गॉवमें दुष्ट स्त्री, शत्रु और धन आदि नीचोंको ला-लाकर बसाते हैं ॥ ४ ॥ साम, दाम, दण्ड, भेद और सेवा-टहल करके तथा और अनेक उपाय करके मैं थक गया हूँ, तब हे प्रभो ! इस बिना ही कारणकी लडाईके इस महान् दुःश्वको आज मैंने तुम्हारे सामने खुलकर निवेदन कर दिया है॥ ५॥ ( तुम्हारे