२३९ विनय-पत्रिका पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहु तेरो। आप पापको नगर बसावता सहि न सकत पर खेरो॥ ४ ॥ साधन-फल, श्रुति-सार नाम तव, भव सरिता कहँ बेरो। सो पर-कर काँकिनी लागि लठ, बेचि होत हठि चेरो॥ ५ ॥ कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें, जाउँ सुमारग नेरो। तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो॥ ६॥ इक हाँ दीन मलीन, हीनमति विपतिजाल अति घेरो। तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो॥ ७ ॥ हारि परयो करि जतन बहुत बिधि, ताते कहत सवेरो। तुलसिदास यह त्रास मिटै जव हृदय करहु तुम डेरो॥ ८॥ भावार्थ-हे रामजी! हे रघुनाथजी ! हे स्वामी ! सुनिये-मेरा मन अन्यायमें लगा हुआ है, आपके चरणकमलोंको भूलकर दिन- रात इधर-उधर (विषयोंमें ) भटकता फिरता है॥१॥ न तो वह वेदकी ही आज्ञा मानता है और न उसे किसीका डर ही है। वह बहुन बार कर्मरूपी कोल्हमें तिलकी तरह पेरा जा चुका है, पर अब उस कष्टको भूल गया है ॥ २ ॥ जहाँ सत्संग होता है, भगवान्की कथा होती है, वहाँ वह मन स्वप्नमें भी भूलकर भी नहीं जाता। परन्तु जो लोभ, मोह, मद, काम और क्रोधमे मग्न रहते हैं उन्हीं (दुष्टों) सेवह अधिक प्रेम करता है॥ ३॥ दूसरोंके गुण सुनकर वह (डाहके मारे)जला जाता है और दूसरोंके दोपसुनकर बड़ाभारीहरखाता है। स्वयं तो पापोंका नगर बसा रहा है, पर दूसरेके (पापोंके) खेडेको भी नहीं देख सकता । भाव यह कि अपने बडे-बड़े पापोपर तो कुछ भी ध्यान नहीं देता, परन्तु दूसरोंके जरा-से पापको देखकर ही उनकी निन्दा करता है ॥ ४॥ आपका राम-नाम सारे साधनोंका
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