पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२२७

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विनय-पत्रिका २३२ हो रही है। सभी अपने-अपने रंगमें रेंग रहे है, यथेच्छाचारी हो गये हैं ॥ ४ ॥ शान्ति, सत्य और सुप्रथाएँ घट गयीं और कुप्रथाएँ बढ़ गयी हैं तथा ( सभी आचरणोंपर ) कपट ( दम्भ ) की कलई हो गयी है ( एवं दुराचार तथा छल-कपटकी बढती हो रही है)। साधु पुरुष कष्ट पाते हैं, साधुता शोकग्रस्त है, दुष्ट मौज कर रहे हैं और दुष्टता आनन्द मना रही है अर्थात् बगुलाभक्ति बढ़ गयी है ॥५॥ परमार्थ खार्थमें परिणत हो गया अर्थात् ज्ञान-भक्ति, परोपकार और धर्मके नामपर लोग धन बटोरने लगे हैं। (विधिपूर्वक न करनेसे ) साधन निष्फल होने लगे हैं और सिद्धियाँ प्राप्त होनी बद हो गयी हैं, कामधेनुरूपी पृथ्वी कलियुगरूपी गोमर (कसाई) के हाथमें पडकर ऐसी व्याकुल हो गयी है कि उसमें जो बोया जाता है, वह जमता ही नहीं (जहाँ-तहाँ दुर्भिक्ष पड़ रहे हैं)॥६॥ कलियुग- की करनी कहाँतक बखानी जाय । यह बिना कामका काम करता फिरता है। इतनेपर भी दॉत पीस-पीसकर हाथ मल रहा है। न जाने इसके मनमें अभी क्या-क्या है॥७॥ हे प्रभु । ज्यों-ज्यों आप शीलवश इसे ढील दे रहे हैं, क्षमा करते जाते हैं, त्यों-ही-त्यों यह नीच सिरपर चढ़ता जाता है। जरा क्रोध करके इसे डॉट दीजिये । आपकी तरजनी देखते ही यह कुम्हडेकी बतियाकी तरह मुरझा जायगा ।। ८॥ आपकी वलैया लेता हूँ, देखकर न्याय कीजिये, नहीं तो अब पृथ्वी आनन्द-मङ्गलसे शून्य हो जायगी । ऐसा कीजिये, जिसमें लोग बड़भागी होकर प्रेमपूर्वक यह कहें कि श्रीरामजीने हमें कृपादृष्टिसे देखा है (बडभागी' वही है जिसका रामके चरणोंमें अनुराग है । यह अनुराग श्रीरामकृपासे ही प्राप्त होता है)।॥ ९॥