पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२२६

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२३१ - विनय-पत्रिक विनती सुनि सानंद हेरि हसि, करुणा-बारिभूमि मिजई है। राम-राजभयो काज, सगुन सुभ, राजाराम जगत-बिजई है ॥१०॥ समरथ वड़ो, सुजान सुसाहव, सुकृत-सैन हारत जितई है। सुजन सुभावः सराहत सादर, अनायाससाँसति वितई है ॥१९॥ उथपे थपन, उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है। तुलसीप्रभु आरत-आरतिहर, अभय वॉह केहि केहि नदई है ॥१२॥ भावार्थ-हे दीनदयालु ! पाप, दारिद्रय, दुःख और तीन प्रकार- के दुःसह दैविक, दैहिक, भौतिक तापोंसे दुनिया जली जा रही है। हे भगवन् ! यह आर्त आपके द्वारपर पुकार रहा है, क्योंकि सभीके सब प्रकारके सुख जाते रहे हैं ॥ १॥ वेद और विद्वानोंकी सम्मति है तथा प्रभुके श्रीमुखके वचन हैं कि ब्राह्मण साक्षात् मेरा ही स्वरूप हैं। पर आज उन ब्राह्मणोंकी बुद्धिको क्रोध, आसक्ति, मोह, मद और लालची लोभने निगल लिया है अर्थात् वे अपने खाभाविक शम-दमादि गुणोंको छोड़कर अज्ञानी, कामी, क्रोधी, घमंडी और लोभी हो गये हैं ।। २ ।। इसी तरह राजसमाज (क्षत्रिय जाति) करोड़ों कुचालोंसे भर गया है, वे (मनमाने रूपमे लूट- मार, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, अनाचाररूप) नित्य नयी कुचालें चल रहे हैं और हेतुवाद (नास्तिकता ) ने राजनीति, ( ईश्वर और शास्त्रपर यथार्थ) विश्वास, प्रेम, धर्मकी और कुलकी मर्यादाका ढूंढ ढूँढ़कर नाश कर दिया है ॥ ३ ॥ संसार वर्ण और आश्रम-धर्मसे भलीभाँति विहीन हो गया है । लोक और वेद दोनोंकी मर्यादा चली गयी । न कोई लोकाचार मानता है और न शास्त्रकी आज्ञा ही सुनता है। प्रजा अवनत होकर पाखण्ड और पापमें रत