पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२२४

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२२९ विनय-पत्रिका [१३८] कर सो कर-सरोज रघुनायक! धरिहौ नाथ सीस मेरे। जेहि कर अभय किये जन आरत, बारक विवस नाम टेरे ॥२॥ जेहि कर-कमल कठोर संभुधनु भंजि जनक-संसय मेट्यो। जेहि कर-कमल उठाह बंधु ज्या, परम प्रीति केवट भेट्यो ॥२॥ जेहि कर-कमल कृपालु गोधकहँ, पिंड देश निजधाम दियो। जेहि कर वालि चिदारिदास हिन. कपिकुल-पति सुग्रीव कियो ॥३॥ आयो सरन सभीत विभीपन जेन्द कर-कमल तिलक कीन्हों। जेहि कर गहि सर चाप अमुरहनि, अभयदान देवन्ह दीन्हीं ॥४॥ सीतल सुन्नद छाँह जेहि फरकी. मेटति पाप, ताप, माया। निसि-वासर तेहि कर-सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया ॥५॥ गवार्थ-हे रघुनायजी । हे खामी ! क्या आप कभी अपने उस कारकमटको मेरे माथेपर रक्खेंगे, जिसमे आपने परतन्त्रताश एक बार आपका नाम लेकर पुकार करनेवाले आर्त भक्तोंको अभय कर दिया था ॥ १ ॥ जिस करकमलसे महादेवजीका कठोर धनुष तोड़कर आपने महाराज जनकका सन्देह दूर किया था और जिस कर-कमरसे गुह-निषादको उठाकर भाईके समान बड़े ही प्रेमसे हृदयमे लगा लिया था ॥ २॥ हे कृपालु ! जिस कर-कमलले आपने (जटायु) गीधको (पिताके समान) पिण्ड-दान देकर अपना परम धाम दिया था, और जिस हायसे अपने दासके लिये बालिको मारकर, सुग्रीवको बंदरोंके कुलका राजा बना दिया था ॥ ३ ॥ जिस कर-कमलसे आपने भयभीत शरणागत विभीषणका राज्याभिषेक किया था और जिस हायसे धनुष-बाण तोडकर मनसे लगा लिया