२२८ विनय-पत्रिका जोइ जोइ कूप खनैगो परकह सो सठ फिरि तेहि कूप पर। सपनेहु सुखनसंतद्रोहीकहँ सुरतरुसोउ विष-फरनि फरै॥५॥ हैं काके द्वै सीस ईसके जो हठि जनकी सोच चरै। तुलसिदास रघुवीर वाहवल सदा अभय, काहू न डरै ॥ ६ ॥ भावार्थ-यदि कृपालु रघुनाथजीकी कृपा है, तो दूसरोंके वैर करनेसे उनका क्या काम निकल सकता है ? भक्कका बाल भी वाँका नहीं होता, चाहे कोई करोडों उपाय क्यों न करे ॥१॥ जो नीच सतकी मौत विचारता है वह पामर स्वयं उसी मौतसे मरता है । प्रह्लादकी कया वेदोंमें प्रसिद्ध है, उसे सुनकर ऐसा कौन ( अभागा ) होगा जो भक्ति मार्गपर पैर न रक्खेगा, यानी भक्ति न करेगा ? ॥ २॥ श्रीहरिने गजराजका उद्धार किया, विभीषणको राज्य- सिंहासनपर बैठाया, ध्रुवको ऐसा अटल पद दे दिया जो कभी हटता ही नहीं और अम्बरीषकी तो बात ही निराली है, महामुनि (दुर्वासा ) ने जो उनको शाप दिया था, उसका परिणाम याद करके अब भी वे ग्लानिसे गले जाते हैं, लाजसे मरे जाते हैं ॥३॥ दुर्योधनने आनी जानमें, ऐसी कौन-सी बुराई है, जो पाण्डवोंके साथ नहीं की । वह मूर्ख अपने ही घमडमें जलता रहा पर भगवान्की कृपासे सौभाग्य, विजय और यशने पाण्डवोंको ही हठपूर्वक अपनाया ॥ ४॥ जो दूसरेके लिये कुऑ खोदेगा, वह दुष्ट स्वयं उसीमें गिरेगा। संतोंके साथ वैर करनेवालेको स्वप्नमें भीसुख नहीं हो सकता। उसके लिये तो कल्पवृक्ष भी जहरीले फल ही फलेगा ॥ ५॥ किसके दो सिर हैं जो भगवान्के भक्तकी सीमा लॉधेगा? हे तुलसीदास । जिसके श्रीरघुनायजीका बाहु-बल सहायक है, वह सदा निर्भय है, किसीसे भी नहीं डर सकता ॥ ६॥
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