२२७ विनय-पत्रिका है, उसपर चलनेपर सभी प्रकारके सुखोंकी प्राप्ति होगी। इस मार्गपर चलनेवाला साधक सांसारिक (विषयोंसे सुखकी ) आशाको त्याग- कर भगवत्कृपासे नित्य ( अद्वैतब्रह्मके ) सुखको प्राप्त करता है । यों तो करोडों बातें हैं, उन्हें कौन कहता फिरे; परन्तु जहॉतक द्वैत दिखलायी भी देता है वहाँतक सपनेमें भी सच्चा सुख नहीं मिल सकता ( सच्चा सुख अद्वैत ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होनेमें ही है, इसीको संसार- सागरसे पार होना कहते हैं ) परन्तु ब्राह्मण, देवता, गुरु, हरि और संतों [ की कृपा ] के बिना कोई संसार-सागरका पार नहीं पासकता, यह समझकर तुलसीदास भी (संसारके ) भयको दूर करनेवाले लक्ष्मीपति भगवान्के गुण गाता है। राग बिलावल [१३७] जोपै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै। होइ न वाँको वार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करे ॥१॥ तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीच मरै। वेद-विदित प्रह्लाद-कथासुनि,कोन भगति-पथपाउँघरै?॥२॥ गज उधारिहरिथप्यो विभीषन, ध्रुव अविचल कवहूँ नटरै। अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनिग्लानिगरै ॥३॥ सो धौं कहा जुन कियोसुजोधन, अबुध आपने मान जरै। प्रभु प्रसाद सौभाग्य विजय-जस पांडवनै * बरिआइ बरै॥४॥ -
- पांडवन पाठ ही शुद्ध है। पांडुतनै पाठ कर देनेवालोंने भूल की
है । अवधीमें पाण्डवका बहुवचन कर्म कारकका शुद्ध रूप है पांडवनहिं वा पाडवनै । पाडवन्हि भी लाघवसे बनता है, परन्तु यहाँ एक मात्रा उससे अधिक चाहिये थी।