२२० विनय-पत्रिका [१०] रघुपति भगति सुलभ, सुखकारी। सो प्रयताप-सोक-भय-हारी॥ बिनु सतसंग भगति नहिं होई। ते तव मिले द्रव जव सोई ॥ जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु संगति पाइये। जेहि दरस-परस-समागमादिक पापरासि नसाइये। जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादिक गुन भये । मद-मोह लोभ-विपाद-क्रोध सुवोधते सहहिं गये। [११] सेवत साधु द्वैत-भय भागे। श्रीरघुवीर-चरन लय लागे । देह-जनित विकार सव त्यागे। तब फिरि निज खरूप अनुरागै॥ अनुराग सो निज रूप जो जगते विलच्छन देखिये। संतोष, सम सीतल सदा दम, देहवंत न लेखिये ॥ निरमल, निरामय, एकरस, तेहि हरप-सोक न व्यापई। त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दशा ऐसी भई ॥ [१२] जो तेहि पंथ चलै मन लाई। तो हरि काहे न होहिं सहाई ॥ जो मारग श्रुति-साधु दिखावै । तेहि पथ चलत सबै सुख पावै । पावै सदा सुख हरि-कृपा, संसार-आसा तजि रहै। सपनहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसनः वात-कोटिक को कहै ॥ द्विज, देव गुरु हरि, संत विनु संसार-पार न पाइये। यह जानि तुलसादास त्रासहरन रमापति गाइये । भावार्थ-हे जीव ! जबसे तू भगवान्से अलग हुआ तभीसेतूने शरीरको अपना घर मान लिया । मायाके वश होकर तूने अपने
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