विनय-पत्रिका २१६ नहीं है, तेरे हृदयमें ही है। उल होकर उसका स्मरण करनेपर वह सदा कृपा किये ही रहता है । भान यह कि परमाला एदया तो अवश्य है किन्तु वीचा कपटका पाटा है, उसी उसस साक्षात्कार नहीं होता । पादा दटा, कि प्यारेका मुगकार दीवा! वह कृपा करके अपने भक्तोंपर कर-कमलोपी छाया किये रहता है, स्वयं सदा उनकी रक्षा करता है। जो उसे भगता है या भी उसे भजता है । वह जगत्का ईश्वर है, जीपका जीवन है जो सबके लिये सब तरहके साज सजता है, जिसने शिशुको पिशुत्व, ब्रह्माको ब्रदत्व और शिनको शिवत्व दिया, वह यही श्रीजानकीनाय रघुनाथजीकी मधुर आनन्दवरूपिणी मगठमयी मूर्ति ॥३॥ यद्यपि वह बहुत ही बडा स्वागी है, सभीका अधीवर है, तयाशि वह महान् सुशील, सुन्दर और सरल है। अरे ! जिसका ध्यान शिवको भी दुर्लभ है उसने उठकर फेवटको एदयसे लगा लिया ! हृदयसे लगाकर मिलते ही उनकी आँखोंमें आँसू भर आये और प्रेमवश शरीर शिथिल-सा हो गया । देवता, सिद्ध, मुनि और कानि कहते है कि श्रीरघुनाथजीके समान कोई भी प्रेमप्रिय नहीं है, उन्हें जितना प्रेम प्यारा लगता है उतना और किसीको नहीं लगता। उन्होंने पक्षी (जटायु), शबरी, राक्षस (विभीषण), रीछ (जाम्बवान् आदि) और वंदरों (हनुमानजी आदि) को अपनेसे भी अधिक पूजनीय बना दिया । ( अब शीलकी ओर देखिये ) इतनेपर भी वे जब उन लोगोंद्वारा की हुई सेवा याद करते हैं, तव सकोचके मारे मन-ही-मन गड़े-से जाते हैं।॥ ४ ॥ प्रभु श्रीरामजीका जो शील-स्वभावमैंने कहा है उसे जब तू हृदयमें लावेगा, तब तेरी सारी चिन्ताएँ मिट जायेंगी और
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