विनय-पत्रिका २१४ अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथा है हितु सो जगहूँ जाहिते स्वारथ ॥ खारथहि प्रिय, खारथ सो का ते कौन वेद वखानई। देखु खल, अहि-खेल परिहरि, सो प्रभुहि पहिचानई ॥ पितु मातु, गुरु खामी, अपनपो, तिय, तनय, सेवक, सखा। प्रिय लगत जाके प्रेमसौं, विनु हेतु हित तें नहिं लखा ॥२॥
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दुरि न सो हितू हेरि हिये ही है। छलहि छोडि सुमिरे छोह किये ही है। किये छोह छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजे । जगदीश, जीवन जीवको, जो साज सव सवको सजै ॥ हरिहि हरिता, विधिहि विधिता सिवहि सिवताजो दई। सोइ जानकी-पति मधुर मूरति, मोदमय मंगल मई ॥३॥ ठाकुर अतिहि बड़ो, सील, सरल, सुठि। ध्यान अगम सिवहूँ, भेट्यो केवट उठि॥ भरि अंक भेट्यो सजल नयन, सनेह सिथिल सरीर सो। सुर,सिद्ध,मुनि, कवि, कहतकोउ नप्रेमप्रिय रघुबीर सो॥ खग,सबरि,निसिचर,भालु,कपिकिये आपुतेवंदित पड़े। तापर तिन्ह किसेवासुमिरि जियजात जनु सकुचनिगड़े ॥४॥ खामीकोसुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै। सोच सकलमिटि हैं,रामभलोमनमानि ॥ भलो मानि, रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै। ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै ॥