पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२०६

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२११ विनय-पत्रिका छोटो बड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत । अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥२॥ बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत । पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥३॥ विषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत। योही जिय जानि, मानि सठ ! तू साँसति सहत ॥ ४॥ पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत । तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥ ५॥ भावार्थ-अरे जीव ! मैं तुझसे बार-बार हितकारी, प्रिय, पवित्र और सत्य वचन कहता हूँ, इन्हें सुनकर मनमे विचारकर और समझकर भी तू सुगम और सुन्दर रास्ता क्यों नहीं पकड़ता ? अर्थात् श्रीरामकी शरण क्यों नहीं हो जाता ॥१॥ छोटा-बड़ा, खोटा-खरा, जो जहाँ संसारमें रहता है, उनमे बता, ऐसा कौन है, जो अपना भला न चाहता हो ? ॥ २॥ ब्रह्मासे लेकर छोटे-छोटे कीड़ेतक सुखसे सुखी होते है और दुःखसे जलते हैं, पशुपालक ग्वाले की तरह परमात्मा जीवरूपी पशुओंको ( अज्ञानसे ) बॉधता, (ज्ञानसे) खोलता और उन्हें (कमों में ) जोतता है ॥ ३॥ विषयोंके सुखोंको देख । वे तो सिरके बोझेको कंधेपर रखनेके समान हैं। अर्थात् विषय-सुखमें सुख है ही नहीं, इस तरह मनमे समझकर मान जा। अरे मूर्ख! क्यो कष्ट सह रहा है । ॥ ४॥ तनिक विचार तो कर, मृगतृष्णाके जलको मथकर किसने घी पाया है ? अर्थात् असत संसारके काल्पनिक पदाथोंमेसच्चासुख कैसे मिल सकता है ? हे तुलसी! तू तो उसी प्रभुकी शरणमें जा, जिससे सब कुछ प्राप्त होता है ॥५॥