"विनय-पत्रिका २०८ बटना, अर्थात् जैसे धूलकी रस्सीसे हाथीका वॉधना असम्भव है, वैसे ही रामनामहीन साधनोंसे मनका परमात्मामें लगना असम्भव है ॥ ३ ॥ सुन्दर रामनामरूपी चिन्तामणि छोड, तू विषयरूपी धुंधचियोंको देखकर उनपर ललचा रही है, तेरा यह तुच्छ लोभ देखकर ही तुलसी तुझे फटकार रहा है ॥ ४ ॥ [१३०] राम राम, राम राम राम राम, जपत । मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल छपत ॥१॥ कहु के लहे फल रसाल, बबुर वीज वपत। हारहि जनि जनम जाय गाल गूल गपत ॥ २॥ काल, करम, गुन, सुभाउ सबके सीस तपत । राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत ॥३॥ साधन विनु सिद्धि सकल विकल लोग लपत । कलिजुग वर वनिज विपुल नाम-नगर खपत ॥ ४॥ नाम सों प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत । पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत ॥ ५॥ भावार्थ-राम-नामके जपसे कल्याण और आनन्दका उदय होता है और कलियुगके पाप तथा छल-छिद्र छिप जाते हैं।॥ १॥ बबूलका बीज बोकर आजतक किसने आमके फल पाये ! अतएव तू व्यर्थ गप्पें मारकर अपने (दुर्लभ मनुष्य ) जन्मको नष्ट मत कर (गप्पोंका फल तो दुर्गति ही होगा, इसलिये रामनाम जप, इसीमें कल्याण है ) ॥२॥ काल, कर्म, गुण ( सत्त्व, रज और तम ) और स्वभाव-ये सभीके सिरोंपर तप रहे हैं, अर्थात् इनके प्रभावसे सभीको दुःख भोगना और
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२०३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।