२०१ विनय-पत्रिका बिना अज्ञानजनित पापोंसे छुटकारा नहीं मिलता ॥ २॥ जैसे अज्ञानके कारण मालामें महान् भयावने सर्पका भ्रम हो जाता है और वह ( मिथ्या सर्पका भ्रम न मिटनेतक) अनेक हथियारोंके द्वारा वलसे मारते-मारते थक जानेपर भी नहीं मरता, साँप होता तो हथियारोंसे मरता; इसी प्रकार यह अज्ञानसे भासनेवाला संसार भी ज्ञान हुए बिना बाहरी साधनोंसे नष्ट नहीं होता ॥ ३॥ जैसे अपने ही भ्रमसे सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न हुआ (मृगतृष्णाका) समुद्र बड़ा ही भयावना लगता है और उस (मिथ्यासागर ) में डूबा हुआ मनुष्य बाहरी जहाज या नावपर चढ़नेसे पार नहीं पा सकता। (यही हाल इस अज्ञानसे उत्पन्न संसार-सागरका है ) ॥ ४ ॥ तुलसीदास कहते हैं, जबतक 'मैं' पन सहित संसारका निर्मूल नाश नहीं होगा, तबतक हे भाइयो ! करोड़ों यत्न कर-करके मर भले ही जाओ, पर इस संसार-सागरसे पार नहीं पा सकोगे ॥ ५॥ [१२३] अस कछु समुझि परत रघुराया ! विनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥१॥ वाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई। निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह तम निवृत्त नहिं होई॥ २॥ जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै। चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै॥३ पटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखान। बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जाने ॥ ४॥ जबलगिनहिं निज हृदिप्रकास, अरु बिषय-आसमनमाहीं। तुलसिदास तबलगिजग-जोनि भ्रमत सपनेहुँसुख नाहीं ॥ ५ ॥
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