विनय-पत्रिका २०० मनोरम दिखायी देता है । अवश्य ही उनके लिये यह ससार सुखकारी हो सकता है जो सम, सन्तोप, दया और विवेकसे युक्त व्यवहार करते हैं ॥ ४ ॥ हे तुलसीदास ! वेद कह रहे है कि यद्यपि सासारिक प्रपच सब प्रकारसे असत्य है, किन्तु रघुनाथजीकी भक्ति और सतोंकी सगतिके बिना किसमें सामर्थ्य है जो इस संसारके भीषण भयका नाश कर सके, इस भ्रमसे छुडा सके ॥ ५॥ [१२२] मैं हरि, साधन करइ न जानी। जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी ॥१॥ सपने नृप कहँ घटै विप्र-बध, विकल फिरै अघ लागे । वाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ विनु जागे ॥२॥ नग महँ सर्प विपुल भयदायक, प्रगट होइ अविचारे । बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥३॥ निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै । अवगाहत बोहित नौका चढ़ि कबहूँ पार न पावै ॥ ४॥ तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई। तव लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई ॥ ५ ॥ भावार्थ-हे हरे ! मैंने ( अज्ञानके नाशके लिये) साधन करना नहीं जाना । जैसा रोग था वैसी दवा नहीं की। इसमें इलाजका क्या दोष है ॥१॥ जैसे सपनेमें किसी राजाको ब्रह्महत्याका दोष लग जाय और वह उस महापापके कारण व्याकुल हुआ जहाँ- तहाँ भटकता फिरे, परन्तु जबतक वह जागेगा नहीं तबतक सौ करोड़ अश्वमेध-यज्ञ करनेपर भी वह शुद्ध नहीं होगा, वैसे ही तत्त्वज्ञानके
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