१९७ विनय-पत्रिका बिना हाथका चित्रकार ( केवल मनःकल्पित ) चित्रोंसे अपना खार्थ सिद्ध करना चाहता है और भग्नमनोरथ होकर दुःख पाता है ( उसी प्रकार मैं भी भजन-साधनरूप सुकृत किये बिना ही यों ही सुख चाहता हूँ)॥४॥ आपका हृषीकेश (इन्द्रियोंके खामी ) नाम सुनकर मैं आपकी बलैया लेता हूँ। मेरे मनमे आपका अत्यन्त भरोसा है । तुलसीदासका इन्द्रियजन्य दुःख आपको अवश्य नष्ट करना ही पड़ेगा ॥५॥ [१२०] हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी। जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥१॥ मर्थ अविद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाई । विन वाँधे निज हठ सठ परवस परयो कीर की नाई ॥२॥ सपने व्याधि विविध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई। वैद अनेक उपाय करै जागे विनु पीर न जाई ॥३॥ श्रुति-गुरु-साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत् दुखकारी । तेहि विनु तजे, भजे बिनु रघुपति, विपति सकै कोठारी॥४॥ बहु उपाय संसार-तरन कहँ, विमल गिरा श्रुति गावै। तुलसिदास मैं-मोर गये विनु जिउ सुख कबहुँ न पावै ॥ ५॥ भावार्थ-हे हरे ! मेरे इस (संसारको सत्य और सुखरूप आदि माननेके) भारी भ्रमको क्यों दूर नहीं करते ? यद्यपि यह संसार मिथ्या है, असत् है, तथापि जबतक आपकी कृपा नहीं होती, तबतक तो यह सत्य-सा ही भासता है ॥ १॥ मैं यह जानता हूँ कि (शरीर- धन-पुत्रादि ) विषय यथार्थमें नहीं है, किन्तु हे खामी ! इतनेपर भी
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