- २९५ विनय-पत्रिका हाथीके दिखावटी दाँतोंकेसमान है, यह सब तो तुम भलीभाँति जानते ही हो । भाव यह कि जैसे हाथीके दॉत दिखानेके और तथा खानेके और होते हैं, उसी प्रकार मैं भी दिखाता कुछ और हूँ और करता कुछ और ही हूँ॥१॥ मै दूसरोंसे जो कुछ कहता हूँ वैसा ही स्वयं करने भी लगू तो भव-सागरसे बछड़ेके पैरभर जलको लाँघ जानेकी भाँति अनायास ही तर जाऊँ । परन्तु करूँ क्या ? मेरा आचरण तो कुछ और है और कहता हूँ कुछ और ही । फिर भला तुम्हारे चरणोंका या परमपदका आनन्द कैसे मिले ? ॥ २॥ मोर देखनेमें तो सुन्दर लगता है और मीठी वाणीसे अमृतसे सने हुए-से वचन बोलता है, किन्तु उसका आहार जहरीला सॉप है। कैसा निष्ठुर है ! करनी यह और कथनी वह ! (यही मेरा हाल है)॥३॥ हे रघुवीर! तुमको तो वे ही संत प्यारे हैं, जो समस्त जीवोंसे प्रेम करते हैं, किसीको भी देखकर तनिक भी नहीं जलते, जो तुम्हारे चरणारविन्दोंके प्रेमी हैं, जो धीर-बुद्धि हैं और जो अपने परायेका भेद बिल्कुल ही छोड़ चुके हैं, अर्थात् सबमें एक तुमको ही देखते हैं (फिर मैं इन गुणोंसे हीन तुम्हें कैसे प्रिय लगूं)॥ ४॥ हे रघुनाथजी ! यद्यपि मुझमे अनन्त अवगुण हैं और मैं संसारमे ही रहने योग्य हूँ, परन्तु तुम करुणानिधान हो, तनिक अपने गुणोंपर विचार करके ही तुलसी- दासपर दया करो। ॥ ५॥ [११९] हे हरि! कवन जतन भ्रम भागे । देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निजसुभाउनहि त्यागे॥१॥
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