- १९३ विनय-पत्रिका और (छूटनेके लिये उससे ) विनय करे, पर जब जाग जाय तब वह किससे क्यों निहोरा करेगा॥ ४ ॥ ज्ञान, भक्ति आदि अनेक साधन हैं, और सभी सच्चे हैं, इनमें झूठ एक भी नहीं । परन्तु तुलसीदासके मनमें तो इसी वातका भरोसा है कि अज्ञानका नाश केवल श्रीहरि-कृपासे ही हो सकता है । अर्थात् भगवत्कृपा ही परम साधन है और वह सब जीवोंपर है ही, केवल उसपर भरोसा या परम विश्वास करना चाहिये॥५॥ [११७] हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै। जेहि उपायसपनेहुँदुरलभ गति, सोइ निसि-चासर कीजै ॥ १॥ जानत अर्थ अनर्थरूप, तमकूप परब यहि लागे। तदपिन तजतखान अज खरज्यों, फिरत बिषय अनुरागे॥२॥ भूत-द्रोह कृत मोह-वस्य हित आपन मैं न बिचारो। मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो॥३॥ वेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगव्यापी । वेधत नहिं श्रीखंड वेनु इव, सारहीन मन पापी ॥४॥ मैं अपराध-सिंधु करुनाकर ! जानत अंतरजामी। तुलसिदासभव-व्याल-असित तवसरन उरग-रिपु-गामी ॥५॥ भावार्थ-हे हरे ! तुम्हें क्या दोष दूं ? ( क्योंकि दोष तो सब मेरा ही है। ) जिन उपायोंसे स्वप्नमें भी मोक्ष मिलना दुर्लभ है, मैं दिन-रात वही किया करता हूँ॥ १ ॥ जानता हूँ कि इन्द्रियोंके भोग सर्वथा अनर्थरूप हैं, इनमे फंसकर अज्ञानरूपी अँधेरे कुएँ में गिरना होगा, फिर भी मैं विषयोंमें आसक्त होकर कुत्ते, बकरे और गधेकी भॉति इन्हींके पीछे भटकता हूँ॥२॥ अज्ञानवश जीवोंके साथ द्रोह वि० प०१३--
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