हे रघुनाथजी! इस प्रकार मेरे-तुम्हारे अनेक सम्बन्ध हैं; फिर भला
तुम मुझे कैसे त्याग सकते हो? ॥३॥ मेरे पिता, माता, गुरु,
भाई, मित्र, खामी और हर तरहसे हितू तुम्ही हो। अतएव कुछ
ऐसा उपाय सोचो, जिससे मैं द्वैतरूपी अंधेरे कुऍमें न गिरूँ, अर्थात्
सर्वत्र केवल एक तुम्हें ही देखकर परमानन्दमें मग्न रहूँ॥४॥ हे कमल-
नयन! सुनो, तुम्हारी अपार करुणा भवसागरके भारी भयसे (आवागमन-
से) छुडा देनेवाली है। हे नाथ! तुलसीदासका अज्ञान (रूपी अन्धकार)
बिना तुम्हारे ज्ञानरूप प्रकाशके, बिना तुम्हारे दर्शनके किसी प्रकार
भी नहीं टल सकता (अतएव इसको तुम ही दूर करो)॥५॥
माधव! मो समान जग माही।
सब विधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन विषय कोउ नाहीं॥१॥
तुम सम हेतुरहित कृपाल आरत-हित ईस न त्यागी।
मैं दुख-सोक-विकल कृपालु! केहि कारन दया न लागी॥२॥
नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।
ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना॥३॥
वेनु करील, श्रीखंड वसंतहि दूषन मृषा लगावै।
सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै॥४॥
सब प्रकार मैं कठिन, मृदुल हरि दृढ़ विचार जिय मोरे।
तुलसिदास प्रभु मोह-सुंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे॥५॥
भावार्थ-हे माधव! संसार में मेरे समान, सव प्रकारसे साधन- हीन, पापी, अति दीन और विषय-भोगों में डूबा हुआ दूसरा कोई नहीं है॥१॥ और तुम्हारे समान, बिना ही कारण कृपा करने-