पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१८

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विनय-पत्रिका वेद-पुराण कहते हैं कि शिवजी बड़े उदार हैं, फिर मेरे लिये आप इतने अधिक कृपण कैपे हो गये ? ॥२॥ गुणनिधि नामक ब्राह्मगने आपकी कौन-सी भक्ति की थी, जिसपर प्रसन्न होकर आपने उसे अपना कल्याणपद दे दिया ।। ३ ।। जिस परम गतिको महान् मुनिगण भी दुर्लभ बतलाते हैं, वह आपकी काशीपुरीमे कीट-पतगोंको भी मिल जाती है ॥ ४॥ हे कामारि शिव ! हे खामी !! तुलसीदासकी भेद-बुद्धि हरणकर उसे श्रीरामके चरणोंकी भक्ति दीजिये ॥ ५॥ [८] देष बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे किये दूर दुख सवनिके, जिन्ह-जिन्ह कर जोरे ॥ १॥ सेवा, सुमिरन, पूजिवी, पात आखत थोरे।। दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज, रथ, घोरे ॥ २ ॥ गाँव बसत वामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे। अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे॥ ३॥ बेगि बोलि वलि वरजिये, करतूति कठोरे। तुलसी दलि सँभ्यो चहें सठ साखि सिहोरे ॥ ४ ॥ भावार्थ-हे शंकर ! आप बड़े देव हैं, बड़े दानी हैं और बडे भोले हैं। जिन-जिन लोगोंने आपके सामने हाथ जोड़े, आपने बिना भेदभावके उन सब लोगोंके दु.ख दूर कर दिये ॥१॥ आपकी सेवा, स्मरण और पूजनमे तो थोड़े-से बेलपत्र और चावलों से ही काम चल जाता है, परन्तु इनके बदलेमें आप हाथी, रथ, घोड़े और जगत्में जितने सुखके पदार्थ हैं, सो सभी दे डालते हैं ॥२॥ हे वामदेव ! मैं आपके गाँव (काशी) में रहता हूँ, मैंने कभी आपसे कुछ माँगा