१८३ विनय-पत्रिका देते हैं, इस बातको सब जानते हैं ॥१॥ इस कामको जल्दी ही करना चाहिये, देर करना उचित नहीं है। (सद्गुरुसे) उपदेश लेकर उसी बीजमन्त्र (राम) का जप करना चाहिये, जिसे श्रीशिवजी जपा करते हैं ॥२॥(मन्त्रजपके बाद हवनादिकी विधि इस प्रकार है ) प्रेमरूपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज स्वाभाविक स्नेहका घी बनाना चाहिये और सन्देहरूपी समिधका क्षमारूपी अग्निमें हवन करना चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये ॥३॥ पापोंका उच्चाटन, मनका वशीकरण, अहंकार और कामका मारण तथा सन्तोष और ज्ञानरूपी सुख-सम्पत्तिका आकर्षण करना चाहिये ॥४॥ जिसने इस प्रकारसे भजन किया, उसे श्रीरघुनाथजी मिले हैं। तुलसीदास भी इसी मार्गपर चढा है, जिसे प्रभु निबाह लेंगे॥५॥ [१०९] कस न करहु करुना हरे ! दुखहरन मुरारि ।। . त्रिविधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि ॥१॥ इक कलि-काल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन ।। तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥२॥ सव प्रकार समरथ, प्रभो, मैं सब विधि दीन । यह जिय जानि द्रवी नहीं, मैं करम बिहीन ॥३॥ भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे। दुख-सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥४॥ तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं। तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं ॥५॥ भावार्थ-हे हरे । हे मुरारे! आप दुःखोंके हरण करनेवाले हैं,
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