१७७ विनय-पत्रिका बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता। बस, मेरा तो आपके चरण- कमलोंमे दिनोंदिन अधिक-से-अधिक अनन्य और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे यही चाहता हूँ॥२॥ मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस- जिस योनिमें ले जाय, उस-उस योनिमें ही हे नाथ ! जैसे कछुआ अपने अंडोंको नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभरके लिये भी अपनी कृपा न छोडना ॥ ३ ॥ हे नाथ ! इस ससारमे जहाँतक इस शरीरका (स्त्री-पुत्र-परिवारादिसे ) प्रेम, विश्वास और सम्बन्ध है, सो सब एक ही स्थानपर सिमटकर केवल आपसे ही हो जाय ! ॥ ४ ॥ [१०] जानकी-जीवनकी बलि जैहीं। चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं ॥१॥ उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-विमुख न पैहों। मन समेत या तनके वासिन्ह, इहै सिखावन देहीं॥२॥ श्रवननि और कथा नहिं सुनिहीं, रसना और न गैहौं । रोकिहाँ नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नहीं ॥३॥ नाती-नेह नाथसों करि सव नातो नेह बहेहौं। यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दाल कहैहौं ॥४॥ भावार्थ-मैं तो श्रीजानकी-जीवन रघुनाथजीपर अपनेको न्योछा- वर कर दूंगा ! मेरा मन यही कहता है कि अब मैं श्रीसीता-रामजीके चरणोंको छोडकर दूसरी जगह कहीं भी नहीं जाऊँगा ॥१॥ मेरे हृदयमे ऐसा विश्वास उत्पन्न हो गया है कि अपने स्वामी श्रीरामजीके चरणोंसे विमुख होकर मैं खप्नमें भी कहीं सुख नहीं पा सकूँगा। इससे मै मनको तथा इस शरीरमें रहनेवाले ( इन्द्रियादि ) सभीको यही उपदेश वि० ५० १२--
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१७२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।