पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१७१

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विनय-पत्रिका १७६ अत्यन्त दारुण दुःख सह रहा हूँ-बार-बार अनेक योनियोंमें मुझे जन्म लेना पड़ता है ॥३॥ ( इस मनरूपी मच्छको पकड़नेके लिये ) हे रामजी! आप अपनी कृपाकी डोरी बनाइये और अपने चरणके चिह्न अङ्कशको बंसीका काँटा बनाइये, उसमें परम प्रेमरूपी कोमल चारा चिपका दीजिये । इस प्रकार मेरे मनरूपी मच्छको वेधकर अर्थात् विषयरूपी जलसे बाहर निकालकर मेरा दुःख दूर कर दीजिये। आपके लिये तो यह एक खेल ही होगा ॥ ४ ॥ यो तो वेदमें अनेक उपाय भरे पड़े हैं, देवता भी बहुत-से हैं, पर यह दीन किस-किसका निहोरा करता फिरे १ हे तुलसीदास ! जिसने इस जीवको मोहकी डोरीमें बाँधा है, वही इसे छुड़ावेगा ॥ ५॥ [१०३ ] यह विनती रघुबीर गुसाई। और आल-विस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥१॥ वहींनसुगति,सुमति,संपति कछु,रिधिसिधिविपुल वड़ाई। हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढे अनुदिन अधिकाई ॥२॥ कुटिल करम लै जाहि मोहि जहँ जहँ अपनी वरिआई। तह तह अनि छिन छोह छोडियो, कमठ अंडकी नाई ॥३॥ या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई। ते सब तुलसिदास प्रभु ही सो होहिं लिमिटि इक ठाई ॥४॥ भावार्थ-हे श्रीरघुनाथजी ! हे नाथ ! मेरी यही विनती है कि इस जीवको दूसरे साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है, उस मूर्खताको आप हर लीजिये ॥ १॥ हे राम! मैं शुभगति, सद्बुद्धि, धन-सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और बड़ी मारी