विनय-पत्रिका १८ औढर-दानिद्रवत पुनि थोरें। सकतन देखि दीनकरजोर॥२॥ सुख-संपति,मति-सुगतिसुहाई।सकल सुलभसंकर-सेवकाई॥३॥ गये सरन आरतिकैलीन्हें । निरखि निहाल निमिष मह कीन्हें ॥४॥ तुलसिदासजावकजसगावै ।बिमलभगतिरघुपतिकी पावै ॥५॥ भावार्थ-पार्वतीपति शिवजीसेही याचना करनीचाहिये, जिनका घर काशी है और अणिमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व नामक आठों सिद्धियाँ जिनकी दासी हैं ॥१॥ शिवजी महाराज औढरदानी हैं, थोडी सी सेवासे ही पिघल जाते हैं। वह दीनोंको हाथ जोडे खड़ा नहीं देख सकते, उनकी कामना बहुत शीघ्र पूरी कर देते हैं ।॥ २॥ शंकरकी सेवासे सुख, सम्पत्ति, सुबुद्धि और उत्तम गति आदि सभी पदार्थ सुलभ हो जाते हैं ॥३॥जो आतुर जीव उनकी शरण गये, उन्हें शिवजीने तुरंत अपना लिया और देखते ही पलभरमें सबको निहाल कर दिया ॥४॥ भिखारी तुलसीदास भी यश गाता है, इसे भी रामकी निर्मल भक्तिकी भीख मिले ! ॥ ५॥ [७] कसनदीनपरद्रवहु उमावर । दारुन विपति हरन करुनाकर ॥१॥ वेद-पुरान कहत उदार हर । हमरि वेर कस भयेहु कृपिनतर ॥२॥ कनिभराति कीन्ही गुननिधिद्विजा होइप्रसन्न दीन्हेहु सिवपद निज जोगति अगम महामुनि गावहिं । तवपुर कीटपतगहु पावहिं ॥४॥ देनु काम-रिपु!राम-चरन-रति। तुलसिदास प्रभु!हरहुभेद-मति ॥ भावार्थ-हे उमानमण | आप इस दीनार कैसे कृपा नहीं करत हे करुणाकी खानि ! आप घोर विपत्तियों के हरनेवाले हैं॥१॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।