१६५ विनय-पत्रिका भक्तोंको एक-एक शत्रुके द्वारा सताये जानेपर ही बचा लिया था। पर यहाँ मुझे तो बहुत-से शत्रु असह्य कष्ट दे रहे है। मेरी यह भव-पीड़ा आप क्यों नहीं दूर करते ? ॥५॥ लोभरूपी मगर, क्रोधरूपी दैत्यराज हिरण्यकशिपु, दुष्ट कामदेवरूपी दुर्योधनका भाई दुःशासन-ये सभी मुझ तुलसीदासको दारुण दुःख दे रहे हैं । हे उदार रामचन्द्रजी ! मेरे इस दारुण दुःखका नाश कीजिये ॥ ६ ॥ [९४] काहे ते हरि मोहिं विसारो। जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो॥१॥ पतित-पुनीत, दीनहित, असरन-सरन कहत श्रुति चारो। हौं नहिं अधम, सभीत, दीन ? किधी बेदन मृषापुकारो?॥२॥ खग-गनिका-गज-व्याध-पाँति जहँ तहँ होहूँ बैठारो। अव केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥ ३ ॥ जो कलिकाल प्रवल अति होतो, तुव निदेसते न्यारो। तो हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥४॥ मसक विरंचि, बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो। यह सामरथ अछत मोहि त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो॥ ५॥ नाहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि हौं अति हारो। यह बडि त्रास दासतुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो ॥ ६॥ भावार्थ-हे हरे ! आपने मुझे क्यों भुला दिया ? हे नाथ ! आप अपनी महिमा और मेरे पाप----इन दोनोंको ही जानते हैं, तो भी मुझे क्यों नहीं संभालते ॥१॥ आप पतितोंको पवित्र करनेवाले, दीनोंके हितकारी और अशरणको शरण देनेवाले हैं, चारों वेद
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