पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१६

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विनय-पत्रिका प्रेम-प्रसंसा-विनय-व्यंगजुन, सुनि विधिको बर वानी। तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत-मातुमुसुकानी ॥५॥ भावार्थ-(ब्रह्माजी लोगोंका भाग्य बदलते-बदलते हैरान होकर पार्वतीजीके पास जाकर कहने लगे-) हे भवानी ! आपके नाथ (शिवजी) पागल हैं । सदा देते ही रहते हैं । जिन लोगोंने कभी किसीको दान देकर बदलेमें पानेका कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त किया, ऐसे लोगों को भी वे दे डालते हैं, जिससे वेदकी मर्यादा टूटती है ॥ १॥ आप बड़ी सयानी हैं, अपने घरकी भलाई तो देखिये (यों देते-देते घर खाली होने लगा है, अनधिकारियोंको ) शिवजीकी दी हुई अपार सम्पत्ति देख देखकर लक्ष्मी और सरखती भी (व्यंगसे) आपकी बडाई कर रही है।॥ २॥ जिन लोगोंके मस्तकपर मैंने सुखका नामनिशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजीके पागल- पनके कारण उन कंगालोंके लिये खर्ग सजाते सजाते मेरे नाकों दम आ गया ॥ ३ ॥ कहीं भी रहनेको जगह न पाकर दीनता और दुखियोंके दु.ख भी दुखी हो रहे हैं और याचकता तो व्याकुल हो उठी है ! लोगोंकी भाग्यलिपि बनानेका यह अधिकार कृपाकर आप किसी दूसरेको सौंपिये, मैं तो इस अधिकारकी अपेक्षा भीख माँगकर खाना अच्छा समझता हूँ॥ ४ ॥ इस प्रकार ब्रह्माजीकी प्रेम, प्रशंसा, विनय और व्यंगसे भरी हुई सुन्दर वाणी सुनकर महादेवजी मन-ही- मन मुदित हुए और जगजननी पार्वती मुसकराने लगीं ॥ ५॥ राग रामकली जाँचिये गिरिजापति कासी । जाभवन अनिमादिक दासी ॥१॥ वि० ५०२-