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विनय-पत्रिका
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नागराज निजवल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों।
आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत विलंब न कीन्हों॥२॥
दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी।
अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्योश्रुति साखी॥ ३॥
भूप-सदसि सव नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्मो नर-नारी।
वसन पूरि, अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी॥४॥
एक एक रिपुते त्रासित जन, तुम राखे रघुवीर।
अव मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर॥५॥
लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-वंधु खल मार।
तुललिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार॥६

भावार्थ— हे श्रीरामजी! आपने उस कृपाको कहाँ भुला दिया जिसके कारण दीनोंके दुःखकी करुण-ध्वनि कानोंमें पडते ही आप अपना धाम छोड़कर दौडा करते हैं॥१॥ जब गजेन्द्रने अपने बलकी ओर देखकर और हृदयमें हार मानकर आपके चरणों में चित्त लगाया तब आप उसकी आर्त पुकार सुनते ही गरुडको छोडकर तुरंत वहाँ पहुँचे, तनिक-सी भी देर नहीं की।॥ २॥ हिरण्यकशिपुसे रात-दिन भय- भीत रहनेवाले प्रह्लादकी प्रतिज्ञा आपने रक्खी, महान् बलवान् सिंह और मनुष्यका-सा (नृसिंह) शरीर धारण कर उस दैत्यको मार डाला, वेद इस बातका साक्षी है॥३॥ 'नर' के अवतार अर्जुनकी पत्नी द्रौपदीने जब राजसभामें (अपनी लज्जा जाते देखकर) सब राजाओंके सामने पुकारकर कहा कि ‘हेनाथ ! मेरी रक्षा कीजिये’ तब हे दैत्यशत्रु! आपने वहाँ (द्रौपदीकी लाज बचानेको) वस्त्रोंके ढेर लगाकर तथा शत्रुओंका सारा घमंड चूर्णकर बड़ी कृपा की॥४॥ हे रघुनाथजी! आपने इन सब