१५७ विनय-पत्रिका कर्मसे अचल हो गयी हैं अर्थात् निरन्तर मन, वाणी, शरीरसे सेवामें ही लगी रहती हैं ॥ ३ ॥ वे करुणाके समुद्र और भक्तोंके लिये चिन्तामणिस्वरूप हैं, उनकी सेवा करनेसे ही सारी शोभा है । और जितने देवता, दैत्योंके स्वामी हैं। सो सभी काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य-इन छ. सपोंसे डसे हुए हैं ॥ ४॥ हे पुत्र ! (तेरी विमाता ) सुरुचिने जो कुछ कहा है सो सुननेमें अत्यन्त कठोर होनेपर भी सत्य है। हे तुलसीदास ! श्रीरघुनाथ- जीसे विमुख रहनेसे विपत्तियोंका नाश कभी नहीं होता ॥ ५॥ [८७ ] सुनु मन मूढ़ सिखावन मेरो। हरि-पद-विमुख लह्यो न काहु सुख, सठ! यह समुझ सवेरो ॥१॥ विछुरे ससि-रबि मन-नैननिते, पावत दुख वहुतेरो।। भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ, तहँ रिपुराहु वड़ेरो ॥२॥ जद्यपि अति पुनीत सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो। तजे चरन अजहूँ न मिटत नित, बहिवो ताहू केरो ॥३॥ छुटै न विपति भजे विनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो। तुलसिदास सब आस छाँडि करि, होहु रामको चेरो॥४॥ भावार्थ-हे मूर्ख मन ! मेरी सीख सुन, हरिके चरणोंसे विमुख होकर किसीने भी सुख नहीं पाया । हे दुष्ट ! इस बातको शीघ्र ही समझ ले (अभी कुछ नहीं बिगडा है, शरण जानेसे काम बन सकता है)॥१॥ देख ! यह सूर्य और चन्द्रमाजबसे भगवान्के नेत्र और मनसे अलग हुए तभीसे बड़ा दुःख भोग रहे हैं । रात-दिन आकाशमें चक्कर लगाते बिताने पड़ते हैं, वहाँ भी बलवान् शत्रु राहु पीछा किये
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