पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१५०

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१५३ विनय-पत्रिका लरिकाई वीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय । जोबन जुर जुवती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन वाय ॥ मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय । राम-विमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय ॥ सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय । सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुवंसराय ॥४॥ अब सोचत मनि विनु भुअंग ज्यों, विकल अंग दले जरा धाय । सिर धुनि धुनि पछितात भीजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय ॥५॥ जिन्ह लगि निज परलोक बिगारयो, ते लजात होत गढ़े ठाँय । तुलसीअजहुँ सुमिरि रघुनाथहि, तरन्यो गयद जाके एक नाय ॥ भावार्थ-हाय ! मुझसे कुछ भी नहीं बन पडा और जन्म यों ही बीत गया। बड़े दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर निष्कपटभावसे तन-मन-वचनसे कभी श्रीरामका भजन नहीं किया ॥ १॥ लड़कपन तो अज्ञानमें बीता, उस समय चित्तमे चौगुनी चञ्चलता और (खेलने- खानेकी) प्रसन्नता थी। जवानीरूपी ज्वर चढ़नेपर स्त्रीरूपी कुपथ्य कर लिया, जिससे सारे शरीरमें कामरूपी वायु भरकर सन्निपात हो गया ॥ २॥ (जवानी ढलनेपर ) बीचकी अवस्था खेती, व्यापार और अनेक उपायोंसे धन कमानेमे खोयी; परन्तु श्रीरामसे विमुखः होनेके कारण कभी खप्नमें भी सुख नहीं मिला, दिन-रात संसारके तीनों तापोंसे जलता ही रहा।॥ ३ ॥ न तो कभी श्रीरामचन्द्रजीके भक्तों- की और शुद्ध-बुद्धिवाले संतोंकी ही भक्तिभावसे भलीभाँति सेवा की और न श्रीरघुनाथजीने जो लीलाएं की थीं उन्हें ही रोमाञ्चित होकर