पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१४९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका १५२ परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, वचन दोष पर गाये। सव प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन विसराये ॥३॥ तुलसिदास व्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै। रामचरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥ ४॥ भावार्थ-मोहसे उत्पन्न जो अनेक प्रकारका ( पापरूपी ) मल लगा हुआ है, वह करोडों उपायोंसे भी नहीं छूटता। अनेक जन्मोंसे यह मन पापमें लगे रहनेका अभ्यासी हो रहा है, इसलिये यह मल अधिकाधिक लिपटता ही चला जाता है ॥ १॥ पर-स्त्रियोंकी ओर देखनेसे नेत्र मलिन हो गये हैं, विषयोंका संग करनेसे मन मलिन हो गया है और वासना, अहंकार तथा गर्वसे हृदय मलिन हो गया है तथा सुखरूप स्व-स्वरूपके त्यागसे जीव मलिन हो गया है ॥ २॥ परनिन्दा सुनते-सुनते कान और दूसरों- का दोप कहते-कहते वचन मलिन हो गये हैं। अपने नाथ श्रीरामजीके चरणोंको भूल जानेसे ही यह मलका भार सब प्रकारसे मेरे पीछे लगा फिरता है ॥ ३॥ इस पापके धुलनेके लिये वेद तो व्रत, दान, ज्ञान, तप आदि अनेक उपाय बतलाता है, परन्तु हे तुलसीदास ! श्रीरामके चरणोंके प्रेमरूपी जल बिना इस पापरूपी मलका समूल नाश नहीं हो सकता ॥ ४ ॥ गि जैतश्री [८३] कछु द्वै न आई गयो जनम जाय । अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन-वचन-काय॥