पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१४७

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विनय-पत्रिका १५० कर दे ! ॥१॥ हे श्रीराम ! तू धर्मका स्थान और करो में कामदेवोंके सौन्दर्यसे भी सुन्दर है । सब प्रकारसे मेरा स्वामी है, मनकी अच्छी तरह जानता है और दानरूपी तलवारके चलाने में बड़ा शूर है ॥२॥ अच्छे समयमें तो दो दिन सभीके दरवाजेपर नगारे बजते हैं, परन्तु हे दशरयनन्दन | तू ऐसा दानी है कि बुरे समयमें भी गरीबों को निहाल कर देता है॥ ३ ॥ कुछ भी सेवा न करनेवाले, अच्छे गुणोंसे सर्वथा हीन जिन मनुष्योंने तेरे सामने अपना दुखड़ा सुनाया, उन सबको तैंने निहाल कर दिया, मैंने उन्हें आनन्दसे फले फिरते पाया है ।। ४ । अब तुलसीदास भिखारीके मनकी जानकर (अर्यात् वह और कुछ भी नहीं जानता, केवल तेरा प्रेम चाहता है ऐसा जानकर ) दान दे और वह यही कि हे श्रीरामचन्द्र ! तू चन्द्रमा है ही, मुझे बस चकोर बना ले ॥ ५॥ [८१] दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर कारुनीक रघुराई । सुनहु नाथ मन जरत त्रिविध जुर, करत फिरत चौराई ॥१॥ कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ वियोग-चस होई। कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥२॥ कबहुँ दीन, मतिहीन, रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी । कबहुँ मूढ़ पंडित विडंवरत, कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥ ३॥ कबहुँ देव ! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै । संसृति-संनिपात दारुन दुख विनु हरि-कृपा न नासै ॥४॥ संजम, जप, तप, नेम,धरम, व्रत बहु भेषज-समुदाई। तुलसिदास भवरोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई ॥५॥