१३३ विनय-पत्रिका संसाररूपी समुद्रसे पार उतरनेके लिये श्रीरामनाम ही अपनी नाव है। अथात् इस रामनामरूपी नावमें बैठकर मनुष्य जब चाहे तभी पार उतर सकता है। क्योंकि यह मनुण्यके अधिकारमें है ॥१॥ इसी 'एक साधनके बलसे सब ऋद्धि-सिद्धियोंको साध ले; क्योंकि योग, संयम और समाधि आदि साधनोंको कलिकालरूपी रोगने ग्रस लिया है॥ २ ॥ भला हो, बुरा हो, उलटा हो, सीधा हो, अन्तमें सबको एक रामनामसे ही काम पड़ेगा॥ ३ ॥ यह जगत् भ्रमसे आकाशमे फले-फ्ले दीखनेवाले बगीचेके समान सर्वथा मिथ्या है, धुऍके महलोंकी भाँति क्षण-क्षणमें दीखने और मिटनेवाले इन सांसारिक पदार्थोंको देखकर तू भूल मत ॥ ४ ॥ जो रामनामको छोडकर दूसरेका भरोसा करता है, हे तुलसीदास ! वह उस मूर्खके समान है जो सामने परोसे हुए भोजनको छोड़कर एक-एक कोरके लिये कुत्तेकी तरह घर-घर माँगता फिरता है ॥५॥ [६७ ] राम राम जयु जिय सदा सानुराग रे। कलि न विराग, जोग, जाग, तप, त्याग रे ॥१॥ राम सुमिरत सव विधि ही को राज रे। रामको बिसारिवो निषेध-सिरताज रे॥२॥ राम-नाम महामनि फनि जगजाल रे। मनि लिये फनि जिय, व्याकुल विहाल रे ॥३॥ राम-नाम कामतरु देत फल चारि रे। . कहत पुरान, वेद, पंडित, पुरारि रे ॥ ४॥ राम-नाम प्रेम-परमारथको सार रे। राम-नाम तुलसीको जीवन-अधार रे॥५॥
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