- १२७ विनय-पत्रिका प्यारी लगती हैं ॥ ९॥ सिरपर घुघराले बाल हैं; उनपर मुकुट पहने हैं, भालपर तिलककी बड़ी, शोभा हो रही है, उसे समझाकर कहता हूँ, मानो बिजलीकी दो छोटी-छोटी रेखाएँ अपनी चञ्चलता छोड़कर चन्द्रमाके मण्डलमें निवास कर रही हैं ॥ १०॥ शरीरपर निर्मल अनुपम पीताम्बर धारण किये हैं, जिसकी उपमा हृदयमें समाती नहीं । ( फिर भी कल्पना की जाती है ) मानो अनेक मणियोंसे युक्त नीले पर्वतके शिखरपर सोनेके समान वस्त्र शोभित हो रहा हो ॥ ११ ॥ दक्षिणभागमें प्रेमसहित लक्ष्मीजी विराजमान हैं । वह ऐसी शोभा पा रही हैं मानो तमालवृक्षके समीप नीला वस्त्र ओढ़े सोनेकी लता बैठी हो ॥ १२ ॥ सैकडों सरखती, शेषनाग और वेद सब मिलकर इस शोभाका वर्णन करें तो भी पार नहीं पा सकते । फिर भला यह राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंमें फंसा हुआ मन्दबुद्धि तुलसीदास किस प्रकार गाकर इस शोभाका वर्णन कर सकता है ॥ १३ ॥ राग जैतश्री [६३] मन इतनोई या तनुको परम फलु।
- सव ॲग सुभग विंदुमाधव-छबि तजि सुभाव, अवलोकु एक
पलु॥१॥ तरुन अरुन अंभोजचरन मृदु,नख-दुति हृदय-तिमिर-हारी। कुलिस-केतु-जव-जलजरेखवर,अंकुसमन-गज-बसकारी ॥२॥ कनक-जटितमनिनूपुर,मेखल,कटि-तटरटतिमधुरवानी। त्रिवली उदर, गंभीर नाभिसर, जहँ उपजे बिरंचि ग्यानी ॥३॥
- सब अँग" और "नख सिख" दोनों पाठ मिलते हैं। .