लोकोंकी शोभा समुद्र-कन्या श्रीलक्ष्मीजी आपके दक्षिणभागमें विराजमान हैं। आप गङ्गाजीके समीप सुन्दर मन्दिरमें निवास करते हैं; जो मनुष्य नेत्रोंसे आपका दर्शन करते हैं, वे अत्यन्त धन्य हैं॥७॥ आप सब कल्याणोंके स्थान, कठिन-कठिन सन्देहोंके नाश करनेवाले,पापरूपी वनको भस्म करनेवाले और कष्टोंके हरनेवाले हैं। आप विश्वको धारण करनेवाले, विश्वके हितकारी, अजेय, मन-इन्द्रियोंसे परे, कल्याणरूप और विश्वका सृजन, पालन तथा सहार करनेवाले हैं॥॥ आप ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यके भण्डार हैं। अणिमादि महान् सिद्धियोंके देनेवाले बडे दानी हैं। मुझ तुलसीदासको संसाररूपी सर्प निगले जा रहा है, इससे मैं अत्यन्त भयभीत हूँ,अतएव हे सोंके नाशक गरुड़की सवारी करनेवाले श्रीरामजी ! कृपा करके मुझे बचा लीजिये ॥ ९॥
राग आसावरी
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इहै परम फलु, परम वड़ाई। नखसिख रुचिर बिंदुमाधव छवि निरखहि नयन 'अधाई ॥१॥ विसद किसोर पीन सुंदर वपु, श्याम सुरुचि अधिकाई । नीलकंज, वारिद, तमाल, मनि, इन्ह तनुते दुति पाई ॥२॥ मृदुल चरन शुभ चिन्ह, पदज, नख अति अभूत उपमाई। अरुन नील पाथोज प्रसव जनु, मनिजुत दल-समुदाई ॥३॥ जातरूप मनि-जटित मनोहर, नूपुर जन-सुखदाई। जनु हर-उर हरि बिविध रूप धरि, रहे बर भवन बनाई ॥४॥