विनय-पत्रिका १८ भव-नदी बड़ी ही भयङ्कर और अथाह है, जिसमें पापरूपी जल भरा हुआ है, जिसकी ओर देखना सहज नहीं, इसका पार करना बहुत ही कठिन है क्योंकि यह अपार है। इसमें काम, क्रोध, लोम, मोह, मद, मत्सररूपी छः मगर हैं, इन्द्रियरूपी घड़ियाल और भंवर भरे पड़े हैं, शुभ-अशुभ कर्मरूपी इसके दो तीर हैं, इसमें दुःखोंकी तीव्र धारा बह रही है ॥ ८॥ हे रघुवंशभूषण ! इन सब नीचोंके दलने मुझे पकड़ रक्खा है, यह आपका दास तुलसी सदा चिन्ताके वश रहता है । इस कराल कलिकालके भयसे डरे हुए मुझको आप कृपा करके बचाइये ॥९॥ [६०] देव- नौमि नारायणं, नरं करुणायनं, ध्यान-पारायणं, शान-मूलं । अखिल संसार-उपकार- कारण, सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानु- कूलं ॥१॥ श्याम नव तामरस दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं। तरुण रमणीय राजीव लोचन ललित, वदन राकेश, कर-निकर हासं ॥ २॥ सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं। अरुण पदकंज-मकरंद मंदाकिनीमधुप-मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं ॥३॥ शक-प्रेरितघोरमदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, चोधरत, ब्रह्मचारी। मार्कण्डेय मुनिवहित कौतुकीविनहि कल्पांतप्रभुप्रलयकारीnen
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