विनय-पत्रिका ११४ अपने कर-कमलका सहारा दीजिये, क्योंकि आप दुःखोंके दूर करनेवाले और बडे-बडे सन्तापोंके नाश करनेवाले हैं। हे दूषण- नाशक ! आप अज्ञानरूपी चन्द्रमाको ग्रसनेके लिये राहु और गर्व तथा कामरूपी मतवाले हाथियोंके मर्दन करनेके लिये सिंह हैं ॥१॥ शरीररूपी ब्रह्माण्डमें प्रवृत्ति ही लंकाका किला है । मनरूपी मयदानव- ने इसे बनाया है। इसमें जो अनेक कोश ( शरीरमें पॉच कोश हैं--अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ) हैं, वे इसके अत्यन्त सुन्दर महल हैं। सत्त्वगुण आदि तीनों गुण इसके सेनापति हैं ॥ २ ॥ देहाभिमान अत्यन्त भयङ्कर, अथाह, अपार, दुस्तर समुद्र है, जिसमें राग-द्वेष और कामना आदि अनेक घड़ियाल भरे हैं और आसक्ति तथा संकल्पोंकी लहरें उठ रही हैं ॥३॥ इस लकामें मोहरूपी रावण, अहकाररूपी उसका भाई कुम्भकर्ण और शान्ति नष्ट करनेवाला कामरूपी मेघनाद है। यहाँ लोभरूपी अति- काय, मत्सररूपी दुष्ट महोदर, क्रोधरूपी महापापी देवान्तक, द्वेषरूपी दुर्मुख, दम्भरूपी खर, कपटरूपी अकम्पन, दर्परूपी मनुजाद और मदरूपी शूलपाणि राक्षस हैं, यह ( दुष्ट राज-परिवार और उसके सेनापतिरूपी) राक्षसोंका समूह अत्यन्त पराक्रमी और जीतनेमें बडा कठिन है। इन मोह आदि छ: राक्षसोंके साथ इन्द्रियरूपी राक्षसियाँ भी हैं॥ ४-५ ।। हे नाथ!आपके चरणकमलोंका सेवक जीव विभीषण है, जो इन दुष्टोंसे भरे हुए वनमें सर्वथा चिन्ताग्रस्त हुआ निवास कर रहा है। यम-नियमरूपी दसों दिक्पाल और इन्द्र इस रावणके अधीन होकर अत्यन्त भयभीत रहते हैं ॥ ६॥ इसलिये जैसे आपने महाराज दशरय और कौशल्याके यहाँ पृथ्वीका भार
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