पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/९६

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विद्यापति ।

माधव । १७५ सबहु सखि परबोधि कामिनि आनि देल पि पास जनि वाधि व्याधा विपिन सञो मृगतेज तीख निसास ॥२॥ वैसलि शयन समीप सुवदनि यतने समुहि न होई ॥ भेल मानस बुलए हो दिस देल मनमथे फोइ ॥४॥ सकल गात दुकूल दृढ़ अति कतहु नहि अवकास ॥ पानि परस परान परिहर पूरति की रति आस ॥६॥ निविल निविबँध कठिन कञ्चुक अधरे अधिक निरोध ॥ कठिन काम कठोर कामिनि मान नहि परबोध ॥८॥ करब की परकार वे हम किछु न पर अवधारि ॥ कोपे कौसले करए चाहिअ हठहि हल हिअ हारि ॥१०॥ दिवस चारि गमाए माधव करब रति समधान । बड़ाहिका बड़ होअ धैरज सिंघ भूपति भान ॥१२॥ राधा माधव । १७६