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विद्यापति ।
राधा ।
निवि बन्धन हरि किय कर दूर । एह पय तोहर मनोरथ पूर ॥२॥ हेरने कओन सुख न बुझ बिचारि । बड़ तुहु ढीठ बुझल बनमारि ॥४॥ हमरे शपथ ज हेरह मुरारि । लहु लहु तब हम परब गारि ॥६॥ बिहर से रहास हेरले कोन काम । से नहि सहवहि हमर परान ॥८॥ कहाँ नहि शुनिय एहन परकार । करय विलास दीप लइ जार ॥१०॥ परिजन सुनि सुनि तेजब निशास । लह लहू रमह परिजन पास ॥१२॥ भनइ विद्यापति एहो रस जान । नृप शिवसिंह लखिमा बिरमान ॥१४॥ राधा । १७२ सुनह नागर निविबन्ध छोर । गठिते नहि सुरत धन मार। सुरतक नाम सुनल हम आज । न जानिए सुरत करय कोन काज । सुरतक खोज करव जहाँ पॉो । घरे कि अछय नहि सखिरे सुधाओं ॥ धेर एकु माधव सुन मझु बानि । सखि सञ खोजि मागि देव आनि । विनति करय धनि मागे परिहार । नागरि चतुरि भन कविकण्ठहार ॥ .