पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/७१

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विद्यापति । ••••••• • • • राधा । १२७ | कुच नख लागत सखिजन देख । गिरि कइसे नुकाएत नवससिरेख॥२॥ | आरति अधिक न करिये लोभ । सबै राखए पहिलहि मुखसोभ ॥ ४ ॥ न हर न हर हरि हृदयक हार । दुहु कुल अपजस पहिल पसार ॥ ६ ॥ | खर कए खेव लेहे निअ दान । रसिक पए राख गोपीजन मान ॥ ८॥ तोहेंजदुकुल हमे कुलिनगोशालि । अनुचित बाटन कर वनमालि ॥१०॥ भनइ विद्यापति अरेरे गरि । बड़े पुर्ने सम्भव रे मुरारि ॥१२॥ राजा रूपनरायन जान । राए सिवसिह सुखमा देइ रमान ॥१४॥ सखी-शिक्षा । राधा की शिक्षा । ठूती । १२८ शुनु शुन विनोदिनि राइ। तोहे पुन कहको बुझाइ ॥ २ ॥ कानुक भाव जो होइ । हिय माह राखब गोइ ॥ ४ ॥ केही जन लखइते पार । वेकत करवि कुलचार ॥ ६ ॥ कानु उयब हिय माह । आन छले विसरवि ताह॥ ८ ॥ गुरु दुरुजन तुय पाप । देखले देअब वह ताप ॥१०॥ थीर करवि सदी चीत । जैसन से कुलवति रीत ॥१२॥ पुन जनु भावह आन । इह कविशेखर भान ॥१४॥