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विद्यापति । राधा । १२३ कुञ्ज भवन सञो निकसलि रे रोकल गिरिधारी । एकहि नगर बस माधव हे जनु कर बटवारी ॥ २ ॥ छाड़ कन्हइया मोर आँचर रे फाटत नव सारी ।। अपजस होएत जगत भरि है ननु करिअ उघारी ॥४॥ सङ्गक सखि अगुइाल हे हम एकसरि नारी ।। दामिनी आए तुलाएल है एक राति अँधारी ॥ ६ ॥ भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी । हरिक सङ्ग किछु डर नहि हे तोह परम गमारी ॥ ६॥ राधा । १२४ कर धय कर मोहे पारे । देव में अपरुब: सखि संभ तेजि चलि गेली । न जान , हम न जायब तुअ पासे । जाए - विद्यापति एहो , र म है ॥ ४ ॥ भैली. - ४ ॥ ॥ .