पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/६७

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विद्यापति ।

माधव । | ११७ रामा अधिक चाङ्गम भेल । कतने जतने कत अर्बुद विहि विहि तोहि देल ।। २ ।। सुन्दर वदन सिन्दुर विन्दु सामर चिकुर भार । जनि रवि ससि सङ्गहि उगल पाछु कए अन्धकार ॥ ४ ॥ चञ्चल लोचन बॉके निहारए अञ्जन सोभा पाए । जान इन्दीवर पवने पेलल अलि भरे डलटाए ॥ ६ ॥ उनत उरज चिरे झपावए पनु पुनु दरसाए । जइअग्रो जतने गोअए चाहए हिमगिरि न नुकाए ॥ ८॥ | एहनि हुन्दरि गुनक गरि पुने पुनमत पाव । |इ रस विन्दुक रूपनराशन कवि विद्यापति गाव ॥१०॥ -- माधव । ११८ | कवरी भये चामर गिरि कन्दर मुख भय चॉद अकासे ।। हरिन नयन भय सर भय कोकिल गति भय गज वनवासे ॥ २ ॥ सुन्दरि किए मोहि सम्भासि न जासि । । तुम डरे इह सब दूरहि पलायल तुहुँ पुन काहि डरासि ॥ ४ ॥ कुच भये कमल कोरक जले मुदि रहु घट परवेश हुतासे । दाड़िम सिरिफल गगने वास करु शम्भु गरल करु असे ॥ ६ ॥ भुज भये पङ्के मृणाल नुकाएल कर भय किशलय कॉपे । कबिशेखर भन कत कत ऐसन कहब मदन परतापे ॥ ८॥