पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/६६

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विद्यापति । सम्भाषण । माधव । ११५ सहज प्रसनमुख, दरसे हृदय सुख, लोचन तरल तरङ्ग ।। अकाश पाताल वस, सेओ कइसे भेल अस, चाँद सरोरुह सङ्ग ॥२॥ विधि निरमलि रामा, दोसरि लाछि समा, भल तुलाएल निरमान ।।३।। कुच मण्डल सिरि, होर कनक गिरि, लाजे दिगन्तर गेल । । के अइसन कह, से न जुगुति सह, अचल सचल कइसे भेल॥५॥ माझ खीन तनु, भरे भॉगि जाए जनु, विधि अनुसए भेज साजि । नील पटोर नि, अति से सुदृढ़ जानि, जतने सिरिजू रोमराज॥॥ भन कवि विद्यापति, कामे रमनि रति, कॅडतुक बुझ रसमन्त। सिरि सिव सिंह राउ, पुरुब सुकृते पाङ, लखिमा देवि रानि कन्त ॥६॥ (३) लाछि=लक्ष्मी । (७) पटोर= रेशम । (९) राउरा । माधव । जकर नयन जतहि लागल ततहि सिथिल गेला । तकर रूप सरूप निरूपए काहु देखि नहि भेला ॥२॥ कमलचदनि एहीं जगत तकर पुन सराहिय सुन्दरि मीनत जाही रे ॥३॥ पीन पयोधर चीवुक चुम्बए कीए पदतर देला । वदन चान्द तरासे नुकाएल पलटि हेर चकोरा ॥५॥